प्रेम के हजारों शेड्स हैं।यह रंग शुद्ध स्वार्थ से प्रारंभ होकर(प्रेम का प्राकृतिक रंग यही है)परम निःस्वार्थ की सांस्कृतिक यात्रा में वहुत दूर तक जाता है।हमने सांस्कृतिक यात्रा में ही सारे संवंधियों ,नाते रिश्तों,मित्र,सहायक,सहानुभूति,सौहार्द,धार्मिक,मजहबी प्रेम की नींव रखी,जिसमें घ्रणा भी अपने खालिस मजहबी उन्माद के साथ उपस्थित है।बिचित्र लगता है कि मजहबी घ्रणा के आधार पर प्रतिकृिया स्वरूप मजहबी प्रेम(यह सहयोग है जो प्रेम में पतित हो गया)की नींव रखी गई और इस आधार पर दुनियां को वांटा गया। कवियों, साहित्यकारों और कहीं कहीं दार्शनिकों ने भी प्रेम को उसकी बाहरी कीचड़ को साफ करके या उसकी उपेक्षा करते हुये थोड़े अंदर की आर्द्रता के साथ वर्णन किया ,जो उनके कल्पना जगत के आदर्श की रक्षा करता हुआ सामने आता है।हां ,जरूर.......एक विशिष्ट आयु की संवेगी भावनाओं में अनुभव, जिन्है प्लेटोनिक लव कह के शेष से अलग किया गया है,जो लगभग नितांत प्रति-लिंगी आधार पर होते हैं, को भी जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में से हैं,जो अव लव -जेहाद की मजहवी सीमाओं को छूती है,माना जा सकता है।यह अनुभूति अधिकांश कविता की आधारशिला है,जो पहले तो वर्तमान फिर बीते वर्तमान की स्म्रतियों में चक्कर लगाती है।हमें निश्चित ही काल्पनिक प्रेम के वहुत सांद्र वर्णन इसके कारण प्राप्त हुये हैं जो साहित्य की स्थाई निधि हैं।
भारत के लिये निकट भूत से( 2014) पीछे नौवीं शताव्दी तक का समय अभिषापित,दुर्भाग्य,लूट,कत्ल,विध्वंस,स्त्री व्यभिचार,वेश्यावृत्ति,उजाड़ और छीना झपटी से भरा रहा।यूं तो विदेशी हुक्मरान पैशाचिक धर्मी थे तो उनके निरंकुश कुकर्मों का भी कोई अन्त नहीं रहा।हजारों महिलाओं से भरे हरम सारे के सारे अपहृत लड़कियों के,जिसको चाहा कत्ल किया और घर ,असबाव,धन सव पर कब्जा।डाउसन ने अपने इतिहास में लिखा-अव(1850) जव इन नवाबों के ऊपर कम्पनी का अंकुश है ,तव ये किसी जघन्यता से नहीं चूकते तो इन्हों ने तव क्या किया होगा जब यह निरंकुश थे।हम कैसे कैसे कुत्सित समय की परवरिश हैं।अव हमें गाली मत दो कि हम नाकारे,कायर,रिश्वती,बेईमान हैं।
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