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  संपूर्ण हिंदी कविता-साहित्य और किसी सीमा तक भारतीय कविता पढ़ने के बाद यह देखा कि जैसे भारतीय कवि को न तो मध्य काल के दुर्गंध से भरे नबावी अत्याचार से मतलब है और न देश के बंटबारे से उगे खूनी पाकिस्तान और उसके पार्श्व में होता पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों के बंशनाश की जेहादी कोशिश से।यहां तक कि कश्मीर में पूरे दशक में होने वाले हिंदू नर-संहार और भय-पलायन से भी कोई संवेदना भारतीय कवि को नहीं।क्या यह संवेदन शील जमात सिर्फ व्यक्तिगत दुखों पर रोना जानती है,या यह वर्ग इतना कायर है कि इसे सव ड्राइंग-रूम की सुरक्षित दीबारों में ही कविता आ पाती है।हां ,अपबाद है तो एक कविता श्री तरुण विजय जी की जिसमें तत्कालीन नेताओं पर ब्लेड जैसा कटाक्ष है और कत्ल होते कश्मीरी हिंदुओं की वेदना।उन्हे साहसिक प्रणाम।
  भारतीय हिंदी साहित्य में वहुत दिन हो गये कोई बड़ी घटना नहीं हुई।लगता है उत्तर आधुनिकता-बादियों की मान्यता कि महा-आख्यानों का युग समाप्त हो गया------की सत्यता हिंदी का आज का लेखक चरितार्थ कर रहा है।शायद विश्व -साहित्य का स्वास्थ्य भी कमोबेश ऐसा ही है,क्योंकि 2020 का नोबेल पुरस्कार एक ऐसी अमेरिकन कवियित्री को मिला है जो 1943 की जन्मना है और लुइस ग्लूक के एक कविता संकलन पर दिया गया जो 2014 मे प्रकाशित हुआ। हिंदी मे संभवतः उर्वशी के बाद सन्नाटा है।यह स्थिति एक बड़े संकट का संकेत है या उत्तर-आधुनिक उत्तर। यूं भी अव कोई महान रचना की संभावनायें क्या इसलिये नहींहैं कि कोई महान घटना नहीं हो रही ,और वास्तव में महान घटना की संभावना का समय नहीं।
  भारत के लिये निकट भूत से( 2014) पीछे नौवीं शताव्दी तक का समय अभिषापित,दुर्भाग्य,लूट,कत्ल,विध्वंस,स्त्री व्यभिचार,वेश्यावृत्ति,उजाड़ और छीना झपटी से भरा रहा।यूं तो विदेशी हुक्मरान पैशाचिक धर्मी थे तो उनके निरंकुश कुकर्मों का भी कोई अन्त नहीं रहा।हजारों महिलाओं से भरे हरम सारे के सारे अपहृत लड़कियों के,जिसको चाहा कत्ल किया और घर ,असबाव,धन सव पर कब्जा।डाउसन ने अपने इतिहास में लिखा-अव(1850) जव इन नवाबों के ऊपर कम्पनी का अंकुश है ,तव ये किसी जघन्यता से नहीं चूकते तो इन्हों ने तव क्या किया होगा जब यह निरंकुश थे।हम कैसे कैसे कुत्सित समय की परवरिश हैं।अव हमें गाली मत दो कि हम नाकारे,कायर,रिश्वती,बेईमान हैं।
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  बंद करो....ओ चैनेलकर्मियों यह अपराधियों कातिलों,अबैध धंधा वाले दुष्कर्मियों को वाहुवली कहना।यह बे लोग हैं जिन्हों ने न्यायप्रिय या सामान्य जिंदगी जीने के आदी लोगों के जीवन को नर्क वना कर अपनी कुत्सित गुंडई के वल पर यह गिरोही साम्राज्य वनाया है।देखा जाय तो तुम मीडियाकर्मी वही अपराध कर रहे हैं जो बहुत से तथाकथित इतिहासज्ञों ने भारत को लूट और कत्लों से बरबाद करने वाले आक्रमणकारियों की विभिन्न शब्दावली में प्रशस्ति गाई है।
  हाथरस,हाथरस......क्या यह राजनीतिक-गिद्धता घिनौन की निक्रष्टतम दुर्गंध बनकर रह जाये गी ।क्या अपराधियों का मजहब,धर्म यह फैसला करे गा कि किस आरोपित को फांसी हो किस की नहीं।क्या यह शर्म से खारिज नेता वनने के भुक्खड़ नवसिखिये चोर, बलरामपुर का रास्ता नहीं जानते।क्या इन्हे राजनीतिक संकीर्णता ने दिमागी लकबाग्रस्त कर दिया है......।सालों ,वलरामपुरमें यही दुर्घटना मुसलमानों ने की है......बह भी देखो......सेकुलरों-तुमने अपनी सांप्रदायिकता की काली सूरत दिखा दी है- राज-कर्मी सियारों। हम यह फैसला नहीं देते कि दोषी कौन है इन दुष्कर्मोंमें।
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  संकल्प को सफलता की अद्भुत परिणति तक ले जाना,योजना को योग्यता के सहयोग से युगान्तकारी योग के युग- परिवर्तन का माध्यम वनाना,साहस को साहसिकता की कल्पांत संभावना वनाना,दुनियां को उसकी दुबिधा से निकाल कर भारत-सापेक्षता प्रदान करना,संपूर्ण विश्व में व्याप्त भारत-वंशियों को भारत की भाव-भूमि से जोड़कर अभूतपूर्व एकता,सौहार्द,सौंदर्य का सृजन करना,आहत,कायर,निराश,भग्न-भारत को उसकी संपूर्ण शक्तियों से परिचित कराना........क्या कोई मोदी जी की इन आकाशीय उपलव्धियों को भुला पाये गा।ऐ भारत ॥ सावधान-पीछे मत मुड़ना,क्यों कि वहां बह खांईं है कि वस आत्महत्या ही विकल्प होगा।
  कितना विचित्र लगता है कि राहुल अभी भी सफलता के इंदिरा-कालीन लटकों झटकों के वल पर ही राजनीतिक स्टंटबाजी में मुग्ध हैं ,जब कि मतदाता इन्ही सब से ऊब कर विकल्प की तलाश में बीजेपी के बास्तविक और ठोस राजनीति की पसंद तक पहुंचा।अव इलाइट,सितारा राजनीति नकार के लक्ष्य पर है पर हां ,भारत का मुसलमान अभी भी देश की मुख्य मनोभूमि के खिलाफ ऐसी ही राजनीति और राजनीतिज्ञों को,नितांत मजहबी कुत्सा के चलते,पसंद कर रहा है जो कि अमेठी से वायनाड को पलायन ने पूरी तरह सिद्ध किया।क्या कांग्रेस कोट के ऊपर से जनेऊ संस्करण पर ही भरोसा करके वहुसंख्यक वोटर को चूतिया वनाने में सफल होने के सपनों तक रह जाये गी।भाई- अपने अंधे समर्थकों को इतना निराश भी न करें।

Brahmin Genocide: In the name of Gandhi I Prakhar Shrivastava I Khari Ba...

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  प्रेम के हजारों शेड्स हैं।यह रंग शुद्ध स्वार्थ से प्रारंभ होकर(प्रेम का प्राकृतिक रंग यही है)परम निःस्वार्थ की सांस्कृतिक यात्रा में वहुत दूर तक जाता है।हमने सांस्कृतिक यात्रा में ही सारे संवंधियों ,नाते रिश्तों,मित्र,सहायक,सहानुभूति,सौहार्द,धार्मिक,मजहबी प्रेम की नींव रखी,जिसमें घ्रणा भी अपने खालिस मजहबी उन्माद के साथ उपस्थित है।बिचित्र लगता है कि मजहबी घ्रणा के आधार पर प्रतिकृिया स्वरूप मजहबी प्रेम(यह सहयोग है जो प्रेम में पतित हो गया)की नींव रखी गई और इस आधार पर दुनियां को वांटा गया। कवियों, साहित्यकारों और कहीं कहीं दार्शनिकों ने भी प्रेम को उसकी बाहरी कीचड़ को साफ करके या उसकी उपेक्षा करते हुये थोड़े अंदर की आर्द्रता के साथ वर्णन किया ,जो उनके कल्पना जगत के आदर्श की रक्षा करता हुआ सामने आता है।हां ,जरूर.......एक विशिष्ट आयु की संवेगी भावनाओं में अनुभव, जिन्है प्लेटोनिक लव कह के शेष से अलग किया गया है,जो लगभग नितांत प्रति-लिंगी आधार पर होते हैं, को भी जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में से हैं,जो अव लव -जेहाद की मजहवी सीमाओं को छूती है,माना जा सकता है।यह अनुभूति अधिकांश कविता ...
  याद आता है,गांव कभी इस कुलक्षण (बलात्कार) से मुक्त थे।शहर किसी सीमा तक योन शुचिता में शिथिलता के उदाहरण ,कभी कभी हुआ करते थे।दंगा या मुस्लिम व्यबहार -जैसे मोपला,कश्मीर,वंगलादेश......या फिर लव जेहाद की कथाओं से इतर कुछ अधिक से गांव परिचित नहीं थे परंतु इस बीच एक व्यवस्था ध्वस्त हो गई-पूरोहित।पुरोहित पूरे गांव में अपने वचनों,व्यवहारों,अनुष्ठानों,शुचितापूर्ण-चरित्र,संपूर्ण समर्पण की आभा में पूरे गांव को वांधता था और किसी भी वच्चे को ,चाहें किसी का-थोड़ी डांट दे सकता था।बह ्यबस्था ध्वस्त ही नहीं हुई वल्कि तिरस्कार के लक्ष्य पर है......तो अव कोई नई व्यवस्था वनी नहीं जो है वह इस कुत्सा को किसी रूप में नियंत्रित नहीं वल्कि वढ़ावा देती है। अव हमारे नेता ही आदर्श है जो कि वहुत घटिया हैं।
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  लिखने में, कितने ही विकल्प, स्वयं को ,प्रस्तुत करने में, हमें खासी मुसीवत में डाल दे ते हैं। क्यों कि- गिरा अनयन,नयन विनु वानी।
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  जब सागर मैरीना वन जाता था, सोचने में आता, अगर मेरा भी जहाज,इन अथाह गहराइयों में डूब जाय, तो तुम अपनी एक पुकार से,मुझे , किनारे तक, आने की शक्ति एवं प्रेरणा दोगी।
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  कभी कभी कुछ ऐसा भी हुआ कि मैने स्वयं को विसर्जित करके जिंदगी जी......क्या आप के साथ ऐसा हुआ, क्या कभी आप ने खुद को बाहर से छुआ।
  जिंदगी सिर्फ बीतते समय के साथ वढ़ते बैंक बैलेंस का ही नाम नहीं है।इसमें एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान उस पलायन का है जो कुछ लोग -कड़ी शराव,कुछ लोग -माल-,कुछ लोग ऊंचे पहाड़ो,गहरी घाटियों,नक्षत्रों और कुछ गहराती शाम के आगमन में भी ढ़ूंढ़ लेने के प्रयत्नों में लगे पाये जाते हैं।जीवन का यही वर्णक्रम गीता में माया कहा गया....।और ,बच्चन, जी इसी माया को यूं स्वीकारते हैं- तेरी दुनियां को प्यार किया है मैने। , ग्यानी ने मुझसे कहा कि यह माया है, तूने नासमझी में धोखा खाया है, रस्सी का टुकड़ा है गजरा लगता है, यह सत्य नहीं है सपने की छाया है, जादूगर यह अपराध न कहलाया है, तेरा जादू स्वीकार किया है मैने।तेरी दुनियां को........। तो मैं वस यही करने चला हूं इस व्लाग के माध्यम से।
  समय का चरित्र मेडिकल डाक्टर्स के प्रति वढ़ती अनास्था की ओर उन्मुख है।कोरोना के संदर्भ में वारियर्स का विचार मोदी जी की शह पाकर किसी सीमा तक डाक्टर्स की छवि संभालने में वहुत सहायक हुआ ,पर जो दुर्घटनायें डाक्टर्स के साथ होना शुरू हो गईं हैं वे शुभ संकेत नहीं हैं।वास्तबिकता है कि चिकित्सा-व्यय इस सीमा तक वढ़ गया है कि मरीज को असहनीय हो जा रहा है....तव उसके तीमारदारों में रोष होना स्वाभाविक है।हमें इस सच्चाई को समझना होगा कि किसी चिकित्सा-सुविधा की कीमत क्या है।हम दो बातें साथ साथ नहीं कह सकते-1.ओहो ,इतने टेस्ट वता देते हैं कि.......2.अरे टेस्ट कराये विना ही दवा शुरू कर दी,और नतीजा......।हम डाक्टर्स के बारे में विभाजित मस्तिष्क से सोंचते हैं, केवल आर्थिक विपन्नता के कारण।डाक्टर्स ठीक से काम कर सकें ,उसके लिये पहली आवश्यकता है निर्भय होना,तो उनकी सुरक्षा पहली आवश्यकता है।आज एक डाक्टर वनाने में पांच से दस करोड़ रुपया खर्च होता है।हम यह सच कैसे भूल सकते हैं।
  किसी भी प्रविधि जो स्वतंत्रता दिलाने में सहायक होती.....की तलाश में गांधी ने संपूर्ण देश की यात्रा की।उन्हों ने देखा भीषण गरीबी,दुर्वलता-शारीरिक ही नहीं मानसिक व सांस्कृतिक भी।यहां मानसिक गरीबी का अर्थ है -किसी भी युद्ध जो विदेशी सत्ता से भिड़ने के लिये जरूरी था..की सन्नद्धता के प्रति जागरूकता,उत्सुकता,तैयारी।बह गांधी को कहीं नहीं मिली।1857 की हार ने किसी विजय की संभावना,आमने सामने के आयुध -युद्ध के माध्यम से प्राप्त करने की ,पूरी तरह खत्म कर दी थी।गांधी को यह लगा कि अव सत्याग्रह-आंदोलन जो यहां की डरी,सहमी जनता के लिये अनुकूल थी,ही अंतिम विकल्प है और उन्होंने फिर वही अपनाया।नेता जी सुभाष के आह्वान पर-तुम मुझे खून दो मै तुम्हे.....कितने लोग खून देने हेतु आगे आये.....।यहां के आम आदमीं में वह खून था ही नहीं...।जो खून दे रहे थे वे डकैत कहे गये। गांधी जी का मूल्यांकन आज ड्राइंगरूम में बैठ कर नहीं किया जा सकता,बिना तत्कालीनता को पूरा समझे।